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Tuesday, May 9, 2017

मथुरा के पण्डों पर आए योगी के बयान पर एक नजर

मथुरा के पण्डों पर आए योगी के बयान पर एक नजर

यूपी के मुख्यमंत्री योगी जी ने मथुरा के पण्डों के बारे में जिस तरह का बयान दिया है उससे यह तो साफ़ होता ही है कि वे मथुरा के पण्डों और आगरा के लपकों में कोई फ़र्क़ नहीं समझते, कि वे मथुरा के पण्डों द्वारा यजमानों की खातिरदारी तथा पुरोहितों-यजमानों के पारस्परिक पुश्तैनी संबंधों की संस्कृति से बिल्कुल अनजान हैं। इस दृष्टि से सूबे के मुख्यमंत्री होने लायक उनकी काबिलियत में कमी तो दिखती ही है। भला वह कैसा राजा जो अपनी प्रजा की लोक संस्कृति से ही परिचित न हो!
 लेकिन इसके साथ ही इस बयान से योगी जी और उनकी पार्टी की भावी योजनाओं की एक झलक भी मिलती है।
दरअसल, जैसा कि मार्क्सवादी साहित्य समझाता है, सामंतवाद की जड़ खोद कर ही पूँजीवाद का उदय होता है। किंतु पूँजीवाद जब स्वयं अपनी कब्र खोद रहा होता है तब उसका सबसे नग्न स्वरुप सामने आता है जिसमें मजदूर-किसानों के अधिकारों पर कैंची चलाने के साथ ही छोटे दुकानदारों, छोटे व्यापारियों, छोटे पूँजीपतियों के मुँह के निवाले भी छीन लिए जाते हैं और समाज की समस्त पूँजी का ज्यादा से ज्यादा भाग मुट्ठी भर धनिकों की तिजोरियों में तेजी से भरा जाता है, कि जैसे फ़िर मौका मिले न मिले! मार्क्सवादी इस स्थिति को फ़ासीवाद और इस दौर की सरकारों को फ़ासिस्ट कहते हैं।
भारत में काँग्रेस और भाजपा, दोनों ही पूँजीवादी पार्टियाँ मानी जाती हैं लेकिन भाजपा और ख़ास कर मोदी के नेतृत्व वाली नए युग की भाजपा को फ़ासिस्ट मानने में कोई ग़लतफ़हमी नहीं होनी चाहिए। इसकी वजह यह है कि जिस दौर में काँग्रेस के नेतृत्व में प्राचीन मान्यताओं पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में धीरे-धीरे बदलाव करते हुए "बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया" वाले पूँजीवाद को मज़बूत किया जा रहा था उसी दौर में दुनिया भर के बड़े पूँजीपति वैश्विक आर्थिक संकट के बार-बार लगते झटकों से बेचैन हो कर इस बीमार  पूँजीवाद की लाश की बची-खुची बोटियों को भी चबा डालने की जल्दी में भारत में मोदी और अमेरिका में ट्रंप जैसे मोहरे तैयार कर रहे थे।
आप गौर करेंगे तो पाएँगे कि पिछले कुछ वर्षों में लाखों आटा चक्कियाँ खत्म हो गईं और "आईटीसी" जैसी चार-पाँच कंपनियों ने पैकेटबंद आटे से अरबों कमा लिए, हज़ारों छोटे सिनेमा घर बर्बाद हो गए और रिलायंस के "बिग सिनेमा" जैसी 2-3 कंपनियों ने मल्टीप्लैक्स की दुनिया पर कब्जा कर लिया।
भारत में मोदी युग आने के बाद समाज के इन 1% अमीरों की दौलत में तेज बढ़ोत्तरी हुई है। बड़ी पूँजी अब छोटी पूँजी को ज्यादा तेजी से खा रही है, साथ ही सरकारी मशीनरी व संसाधनों पर भी तेजी से कब्जा जमा रही है।
इसी क्रम में अब इन कॉर्पोरेट पूँजीपतियों की नज़र मथुरा जैसे तीर्थस्थलों पर आती पर्यटकों की भारी भीड़ पर टिक गई है। वे जानते हैं कि इन तीर्थस्थलों पर आने वाले यात्री हर साल हज़ारों करोड़ का धंधा देते हैं जिससे लाखों पण्डों व स्थानीय दुकानदारों का जीवनयापन होता है। अगर इस कड़ी को तोड़ कर यात्रियों को सीधा ग्राहक बनाया जाए तो हज़ारों करोड़ के बाजार पर कब्जा किया जा सकता है।
इसलिए सरकार अब पर्यटन केन्द्रों के नाम पर इन तीर्थस्थलों में नए-नए नियम लागू करेगी जिनसे पुराने तरीकों से चल रही यजमानी व छोटी-मोटी दुकानदारी पर फ़र्क पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर संभव है कि यात्रियों को सुविधा देने के नाम पर टूरिस्ट एजेंसी के ठेके, गैस्ट हाउस के ठेके,  असली पेड़ों की दुकान के ठेके, रैस्टोरेन्ट के ठेके यहाँ तक कि संकल्प पढ़वाने के भी ठेके "मेक इन इण्डिया" जैसे अभियानों और एफ़डीआई के जरिए बड़े विदेशी कॉर्पोरेट्स या अंबानी-अडानी-रामदेव जैसे देशी कॉर्पोरेट्स को दे दिए जाएँगे। साम-दाम-दण्ड-भेद से विरोध में उठती आवाजों को शांत किया जाएगा।
यह कुछ वैसे ही होगा जैसे माँस के कारोबार से  स्थानीय स्तर पर अपना गुजर-बसर करने वाले कसाइयों को लाइसेंस के नाम पर बेदखल कर सस्ते मवेशियों की निर्बाध सप्लाई अब कॉर्पोरेट कट्टीघरों तक पहुँचाने का रास्ता खोल दिया गया है।

सभी पुरोहित हिंदू हैं और लगभग सभी कसाई मुसलमान हैं मगर आर्थिक  पिरामिड के निचले पायदान पर बैठे पण्डों और कसाइयों पर कॉर्पोरेट लूटखोरों की एक जैसी कुदृष्टि है। अब कॉर्पोरेट पण्डों और कॉर्पोरेट कसाइयों का जमाना है। ऐसे में कायदे से दोनों समुदायों को एक हो कर कॉर्पोरेट फ़ासीवाद के विरोध में खड़े होना था मगर फ़ासिस्टों ने अपने मंसूबे सफल बनाने के लिए  इन दोनों समुदायों के बीच नफ़रत के बीज बो रखे हैं उससे यह एकता महज एक दिवास्वप्न ही लगती है। फ़ासिस्टों की "फ़ूट डालो, शासन करो और छोटी पूँजी को निगल जाओ" की नीति को समाज कितनी जल्दी समझेगा, पता नहीं मगर इतना तय है कि आज न समझा तो कल तक बहुत देर हो जाएगी!

- सौरभ इंसान

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