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Saturday, December 29, 2012

बलात्कार : कारण और निराकरण


बलात्कार : कारण और निराकरण 
दिल्ली में बलात्कार का शिकार हुई एक लड़की का देहांत हो गया।इस मुद्दे पर पूरा देश उबल रहा है।क्रोध तो मुझे भी बहुत आ रहा है लेकिन भावुकता एक बात है और न्याय अलग। न्याय भावुकता के साथ नहीं तटस्थता के साथ सभी तथ्यों को ध्यान में रख कर किया जाता है। इसके अलावा न्याय का अर्थ बदला  लेना नहीं है बल्कि उसका अर्थ है एक ऐसी व्यवस्था करना जिससे अपराधी को अपनी गलती का अहसास हो जाये और यदि सम्भव हो तो वह खुद को सुधार कर समाज के हित में काम करे। इस हिसाब से हमें दो काम करने होंगे- पहला तो ये की "बलात्कार" जैसी हैवानियत के लिए ज़िम्मेदार सभी तत्वों को खोजकर उन्हें नष्ट करना होगा ताकि भविष्य में ऐसी हैवानियत भरी मानसिकता पनप ही न पाए।
जब बात तत्वों की आ ही गई है तो एक-एक करके इन पर नज़र डाल  लेते हैं। मुझे लगता है की स्त्री और पुरुष के बीच आकर्षण एक निहायत ही प्राकृतिक घटना है।लेकिन इस आकर्षण को विकृति तक ले जाने के लिए निम्नलिखित कारक जिम्मेदार हैं-
1. स्त्री-पुरुष संबंधो को ज़रूरत से ज्यादा रहस्यमयी  बनाये रखना।
     हमारे संस्कार हमारे किशोर-किशोरियों को सामाजिक और पारिवारिक स्तर  पर स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबंधों, शारीरिक प्रक्रियाओं और प्रजनन से सम्बंधित मसलों  की चर्चा करने की इजाज़त नहीं देते। इस तरह की चर्चाएँ हमारे बुज़ुर्ग भी किशोर-किशोरियों के साथ नहीं करते और इस सन्दर्भ में उनके मन में पनप रही जिज्ञासाओं का या तो कोई गलत और उलझाने वाला उत्तर देते हैं या उन्हें डांट  देते हैं। शिक्षक-शिक्षिकाएं भी पाठ में आये ऐसे मसलों को पढ़ाने से बचते हैं लेकिन  किशोर वय के बच्चों की जिज्ञासा शांत नहीं होती तो वे इधरउधर से कच्चा और विकृत ज्ञान लेकर उसे प्रयोग करने का प्रयास करते हैं और यहीं से गड़बड़ प्रारंभ हो जाती है।
2. अश्लीलता परोसने वाले टीवी कार्यक्रम, अश्लील साहित्य, अश्लील वेबसाइट और सीडी इत्यादि का चलन।
     जिज्ञासा से भरे मन के साथ जब नौजवान इधर-उधर घूम रहे होते हैं तब उन्हें स्त्री-पुरुष को निहायत ही विकृत तरीके से शारीरिक सम्बन्ध बनाते हुए दिखाने के लिए बाज़ार में तमाम साहित्य मौजूद होता है। फिल्मों या सीरीयलों में भी हीरो को हीरोइन के शरीर का दोहन करते ही दिखाया जाता है।गंभीर मुद्दों पर बनने वाली फिल्मों में भी हीरोइन अपने जिस्म की नुमाइश लगाने आ ही जाती है भले ही कहानी  से उसका कोई लेना-देना हो या न हो। इन्टरनेट ने तो ये राह और भी आसान  कर दी है। 
3. यौनुत्तेजना व यौनाकर्षण बढाने वाले सामानों की बेतहाशा बिक्री।
    कुछ दशक पहले तक 'संयम' को ही जनसँख्या वृद्धि रोकने का सबसे बेहतर माध्यम माना  जाता था किन्तु गर्भ निरोधक दवाइयां और कंडोम आदि बनाने वाली कंपनियों ने अपने मुनाफे के लिए इन साधनों को जम  कर प्रचारित करना शुरू कर दिया। सरकार ने भी दलाल की भूमिका बखूबी निभाई और नतीजतन आज हर मेडिकल स्टोर और जनरल स्टोर पर मॉडलों की  नग्न तस्वीरों के साथ स्त्री को मर्दों के उपभोग का सामान सिद्ध करते कंडोम और गर्भ निरोधक दवाओं के पैकिट और शरीर की  खुशबू से विपरीत लिंगी व्यक्ति को सम्भोग के लिए आकर्षित करवाने का दावा करने वाले स्प्रे के डब्बे भरे रहते हैं। इन दवाओं के विज्ञापनों में मशहूर हस्तियाँ आपस में लिपटे-चिपके दीखते हैं और युवाओं को आकर्षित कर उन्हें भी ऐसा ही करने के लिए प्रेरित करते हैं।
4. स्त्रियों को निचले पायदान की कमज़ोर चीज़ बताने वाला धर्म।
     लगभग सभी धर्म स्त्रियों को पुरुषों की यौन लिप्सा शांत करने, उसके बच्चों (खासकर लड़के) यानी उसकी संपत्ति के वारिसों को पैदा करने व उसके घरेलू काम-काजों को सुबह से शाम तक पूरा करने वाली मशीन मानते हैं। यही वजह है की धर्मानुसार शादी के बाद लड़की हमेशा लड़के के घर जाकर ही रहती है। हर धर्म में पुरुषों    को ही सर्वाधिक श्रेष्ठ स्तर पर दर्शाया जाता है, जैसे हिन्दुओं में शिव और मुस्लिमों में अल्लाह। इसी के साथ पुरुषों में स्त्रियों के मुकाबले अधिक श्रेष्टता का दंभ भर जाता है और वे उसे मनचाहे तरीके से उपभोग करने को अपना जायज अधिकार समझने लगते हैं।
5. आर्थिक आधार पर स्त्रियों को दूसरे  दर्जे पर रखना।
    यूँ तो अधिकांश इलाकों में स्त्री का घर के बाहर जाकर रोजगार करना पुरुषों को भाता नहीं है लेकिन जिन इलाकों में संघर्ष के बल पर स्त्रियाँ ऐसा करतीं भी हैं उनमें से अधिकांश जगहों पर उन्हें पुरुषों के बराबर धन नहीं मिलता। उदाहरण के लिए बौलीवुड की सबसे हिट हीरोइन को एक फिल्म के लिए अधिकतम 6-7 करोड़ रुपये  मिलने लगे हैं जबकि उसी फिल्म के लिए स्टार हीरो को 20-25 करोड़ रुपये मिलते हैं। इस स्तर पर अगर यह हाल है तो आम स्तर पर क्या हाल होगा यह खुद समझने की बात है। रईसों के पास आया और नौकर-चाकर तब भी होते हैं, आम औरत के पास तो वह भी नहीं होता। ऐसे में यदि वह कहीं कोई रोजगार या नौकरी करती है तो भी अधिकाँश घरों में उसे ही घर के भी अन्य काम करने होते हैं, बच्चे पालने होते हैं जबकि पुरुष का इन सब से कोई लेना-देना नहीं होता। कुछ भले पुरुष यदि घर के काम-काज  में अपनी पत्नी का सहयोग करते भी हैं तो 'बीवी के गुलाम' कहलाते हैं। इसके अलावा एक  लड़का पैदा होते ही अपने पिता की संपत्ति का वारिस बन जाता है जबकि लड़की को संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिलता।इस प्रकार एक आम स्त्री कभी आर्थिक स्वाभिमान का अहसास नहीं कर पाती और पुरुष श्रेष्ठ बने रहते हैं।

6. राजनैतिक स्तर पर स्त्रियों को पीछे रखना।
     हमारे समाज में स्त्रियों का  राजनीति में रूचि रखना या राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेना भी सही नहीं माना जाता। गली-मुहल्लों में अधिकारों को लेकर मुखर होने वाली कुछ महिलाओं को मर्दानी या लड़क्की कहा जाता है। कई बार तो ऐसी महिलाओं के चरित्र पर भी बेवजह कीचड़ उछाली जाती है।आज़ादी के 65 वर्ष बाद भी हमारी संसद में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की मांग बनी रहती है। जब देश को चलाने वाली संस्था में अधिकाँश पुरुष होंगे तो ज़ाहिर है की उनकी सोच पुरुषों के हित में ही होगी होगी  और स्त्रियों की दशा दयनीय ही रहेगी।
7. शैक्षिक स्तर पर स्त्रियों को पीछे रखना।
    हमारे यहाँ स्त्रियों की शिक्षा महज़ एक औपचारिकता भर है। अधिकांश इलाकों में तो लड़कियों को पढाया ही नहीं जाता। अन्य कई इलाकों में उन्हें इसलिए पढाया जाता है ताकि जब शादी के माध्यम से उन्हें किसी पुरुष के हाथों दोहन के लिए परोसा जाए तब वे उसके तथाकथित समाज में सभ्यता का थोडा-बहुत परिचय दे सकें। एक ऐसा भी वर्ग है जो लड़कियों को उच्च स्तर की शिक्षा लेने की अनुमति देता है मगर ऐसे वर्ग से निकली लड़कियां भी पुरुषवादी समाज के कायदों का पालन करती हुई अपने अधिकारों से अनजान रहती हैं और अप्रत्यक्ष रूप से पुरुषों के इशारों पर ही नाचती हैं। कुछ बेहद चुनिन्दा महिलायें ही सही मायने में शिक्षा पाती हैं लेकिन स्वतंत्र विचारों की होने के कारण अक्सर इन्हें उद्दंड का तमगा दिया जाता है।
8. कॉर्पोरेट घरानों द्वारा साधनों की लूट के चलते फ़ैल रही बेरोजगारी। 
    पूंजीवादी व्यवस्था के चलते समाज के एक बड़े भाग को बुनियादी साधन भी बमुश्किल मुहैया हो पाते हैं और बेरोज़गारी एक आम समस्या होती है। ऐसे में बेरोजगार नौजवान हताशा के चलते कुंठाग्रस्त रहते हैं। यही कुंठा कई मौकों पर विकृत मानसिकता के साथ अपराधों को जन्म देती  है।
9. नशे का कारोबार। 
    यह बात जगजाहिर है की शराब जैसे तमाम नशीले पदार्थ मानसिकता को विकृत करने में अहम् भूमिका निभाते हैं फिर भी इनका उत्पादन और बिक्री जोर-शोर से होती है। हर वर्ग के अनेकों युवा अलग-अलग कारणों से नशे के चंगुल में फंस जाते हैं और विकृत मानसिकता के साथ अपराधों को अंजाम देने के लिए तैयार हो जाते हैं।
10. रचनात्मक क्रियाकलापों का अभाव। 
      एक  ओर जहाँ नशा और बेरोज़गारी और बाज़ार युवा मानसिकता को विकृत कर रहे  होते  हैं  वहीं उसे सकारात्मक रूप से विकसित करने के लिए आवश्यक रचनात्मक साधनों का अभाव हमारे समाज में मिलता है। हमारे यहाँ बच्चों को आज भी किताबी ज्ञान से जूझते रहने को ही बेहतर माना जाता है। कला, साहित्य, खेल आदि में रूचि रखने वाले बच्चों को अक्सर अभिवावकों का क्रोध  पड़ता है। 

अतः यदि हम एक साफ-सुथरा समाज चाहते हैं तो हमें उपरोक्त वर्णित कारणों को ख़त्म करना होगा। हमें बच्चों की जिज्ञासा को शांत करने वाली बेहतरीन शिक्षा पद्धति और बेहतरीन शिक्षक-शिक्षिकाएं तैयार करने होंगे , बाज़ार पर कब्ज़ा जमाकर बैठे अवसरवादी उद्योगपतियों को शिकंजे में लेना होगा, नशीले पदार्थों के उत्पादन पर प्रतिबन्ध लगाना होगा, महिलाओं को आर्थिक व सामाजिक स्तर पर बराबरी का हक़ देना होगा, स्वस्थ मानसिकता वाले समाज-निर्माण के लिए रचनात्मकता का स्वागत करना होगा, पूँजी बटोरने वाली मशीन बनने की बजाय विभिन्न क्रियाकलापों के माध्यम से ज्ञान के आदान-प्रदान  व सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने पर बहुत ध्यान देना होगा। महिलाओं के  आत्म-रक्षा के गुर सीखने  से भी एक बड़ा फर्क आ सकता है और  महिलाओं को शारीरिक रूप से कमज़ोर समझ कर उन पर हमला करने वाले तत्व भी उनसे दूरी बना कर रह सकते हैं।
इसके अलावा दूसरा काम यह करना होगा की जेलों को सुधारगृह का रूप देना होगा। बलात्कार जैसा अपराध करने वाले गैर-पेशेवर अपराधियों के लिए ख़ास तौर पर सुधार कार्यक्रम चलाने होंगे। उन्हें सश्रम कारावास की सजा देने के  साथ उनकी यथासंभव ब्रेनवाशिंग कर उन्हें समाजोपयोगी बनाने का प्रयास करना होगा। मृत्युदंड को विरले अपराधों के लिए अंतिम विकल्प के तौर पर ही रखा जाना चाहिए।

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