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Sunday, October 5, 2008

ये कैसा धर्म???

नवरात्री में कई असामाजिक तत्त्व सक्रिय हो जाते हैं.देवी जागरण के नाम पे लोगो से वसूला हुआ चंदा उनकी अपनी जेब भरने में ज्यादा मदद करता है.धर्म का यह कुटिल रूप सिर्फ़ यहीं नहीं है,यह सर्वव्यापी है.इसे मिटाना ही होगा.
प्रसिद्ध जनवादी कवि श्री महेंद्र 'नेह' की कविता पेश कर रहा हूँ,आशा करता हूँ पसंद और समझ आएगी.
अलविदा
धर्म जो आतंक की बिजली गिराता हो
आदमी की लाश पर उत्सव मनाता हो
औरतो-बच्चों को जो ज़िंदा जलाता हो
हम सभी उस धर्म से मिलकर कहें अब अलविदा
इस वतन से अलविदा इस आशियाँ से अलविदा
धर्म जो भ्रम की सदा आंधी उडाता हो
सिर्फ़ अंधी आस्थाओं को जगाता हो
जो प्रगति की राह में सदा कांटे बिछाता हो
हम सभी उस धर्म से मिलकर कहें अब अलविदा
इस सफर से अलविदा इस कारवाँ से अलविदा
धर्म जो राजा के दरबारों में पलता हो
धर्म जो सेठों की टकसालों में ढलता हो
धर्म जो हथियार की ताकत पे चलता हो
हम सभी उस धर्म से मिलकर कहें अब अलविदा
इस धरा से अलविदा इस आसमान से अलविदा
धर्म जो नफरत की दीवारें उठाता हो
आदमी से आदमी को जो लडाता हो
जो विषमता को सदा जायज़ बताता हो
हम सभी उस धर्म से मिलकर कहे अब अलविदा
इस चमन से अलविदा इस गुलिस्तान से अलविदा